Friday, 28 June 2013

Power in Idea BUT No Money

जो भी पैदा हुआ है, वह मरेगा। यह प्रकृति का चक्र है, नियम है। ट्रेन पर सवार हैं तो ट्रेन की होनी से आप भाग नहीं सकते। कूदेंगे तो मिट जाएंगे। यह हर जीवधारी की सीमा है। इसमें जानवर भी हैं, इंसान भी। लेकिन जानवर प्रकृति की शक्तियों के रहमोकरम पर हैं, जबकि इंसान ने इन शक्तियों को अपना सेवक बनाने की चेष्ठा की है। इसमें अभी तक कामयाब हुआ है। आगे भी होता रहेगा। मगर, यहां भी सीमा है। प्रकृति के संसाधनों की सीमा और समाज की सीमा। इस सीमा को नए मूल्य के सृजन से तोड़ा जा सकता है। बल्कि सच कहें तो निरंतर बदलते-फैलते यथार्थ में मानव समाज के वजूद को बनाए रखने के लिए यह मूल्य सृजन नितांत जरूरी ही नहीं, अपरिहार्य भी है।
कैसे होता है यह मूल्य सृजन? क्या जंगल का बादशाह शेर भी बैठा रहे तो शिकार उसके मुंह में दौड़कर आ जाएगा? ऐसा अहोभाग्य जंगल में किसी का नहीं होता। बिल्ली के भाग्य से छीका फूटना महज एक कहावत है, अपवाद है। कभी-कभी ऐसा होता है। हमेशा नहीं। जिस तरह जंगल में हर जीव को अपने भरण-पोषण के लिए श्रम करना पड़ता है, उसी तरह मानव समाज में भी मूल्य सृजन का बुनियादी तत्व है श्रम। इंसान तो कंगाल है। खाली हाथ आया था, खाली हाथ जाएगा। प्रकृति ही संपन्न है। एक तुही धनवान है गोरी, बाकी सब कंगाल। पहले भी थी और हमेशा रहेगी। इंसान मेहनत करता है, प्रकृति उसे इसका फल देती है। खेती-किसानी से लेकर पहाड़ों में गुफा बनाने या गहरे समुद्र में सुरंग बनाने तक। प्राकृतिक नियमों के खिलाफ गए तो वह आपको निपटा भी देती है।
इंसान अपने श्रम से लगातार कुछ न कुछ हासिल करता जाता है। यह उपलब्धि किसी के साथ नहीं जाती। लेकिन मिटती भी नहीं। अगली पीढ़ी को विरासत में मिल जाती है। श्रम सघन होता गया तो सूक्ष्म होते-होते पूंजी बन गया। हथौड़े की एक-एक मार सघन होते-होते सूक्ष्म होकर मिट गई और पहाड़ से नया रास्ता निकल आया। इसमें समय बहुत लगा तो इसे कम करने के लिए धरती को भेदने और चट्टानों को तोड़ने की दैत्याकार मशीनें बन गईं। लेकिन ये बनीं श्रम और श्रम से ही जनित पूंजी के संयोग से।
न अकेले में श्रम कुछ कर सकता है और न ही पूंजी। एक मियां तो दूसरी बीवी। नया सृजन इनमें से कोई अकेला नहीं कर सकता। दुर्वासा ने बाल से राक्षस पैदा कर दिया, यह कथा है, सदिच्छा है। मनोरंजन के लिए ऐसी कथाएं अच्छी हैं। हिम्मत बंधाती हैं, आगे बढ़ने का जोश पैदा करती हैं, भ्रम पैदा करती हैं। जीवन में आगे बढ़ने के लिए भ्रम का होना भी जरूरी है। महशूर शायर फिराक गोरखपुरी ने भी लिखा है कि पाल ले इक रोग नादां ज़िंदगी के वास्ते, सिर्फ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं। जीभ का स्वाद मर जाए तो भूख लगने पर भी खाने का मन नहीं करता। सृजन बिना संयोग के नहीं होता। लेकिन क्या कीजिएगा। कथाएं चलते हमारे मानस में अपनी स्वतंत्र सत्ता बना लेती हैं। जिस पत्थर को घर लाकर हमने भगवान बनाया, उसी के आगे हम गिड़गिड़ाने लगते हैं, माथा फोड़ने लगते हैं। जिस नेता को हम और हमारे बंधु-बांधवों से चुना, वही हमारा आका बन जाता है और हम उसके चाकर।
मूल मसले पर लौटते हैं। मानव समाज के बने रहने के लिए निरंतर मूल्य सृजन जरूरी है। अर्थव्यवस्था का बढ़ते रहना जरूरी है। हम आज जहां तक आ पहुंचे हैं, उसमें मूल्य सृजन के लिए श्रम और पूंजी दोनों अपरिहार्य हैं। श्रम से ही तिल-तिलकर निकली पूंजी का स्वतंत्र रूप है, स्वतंत्र सत्ता है। जिस तरह इंसान भी वही और वहीं श्रम करता है, जिससे और जहां से कुछ मिलने-मिलाने की उम्मीद होती है। पूत सपूत तो का धन संचय और पूत कपूत तो का धन संचय! खेती से कुछ मिलना-मिलाना है नहीं, तो काश्तकार अपनी जमीन अधिया-बटाई पर देकर महानगरों में सिक्यूरिटी गार्ड व चपरासी से लेकर बिजली मैकेनिक या प्लम्बर तक बनने चला आता है। श्रम हमेशा फल खोजता है। उसी तरह पूंजी भी हमेशा फायदा खोजती है। लाभ के पीछे भागती है। खोजती है कि वह कहां गुणित हो सकती है। दोनों का मकसद एक है कि प्रकृति व समाज के संघर्षण से निकली सुविधाओं के बड़े से बड़े हिस्से का स्वामी कैसे बन जाया जाए।
पूंजी और श्रम, दोनों ही अपना नफा-नुकसान देखकर चलते हैं। इसलिए दोनों के बीच हितों का टकराव है। लेकिन मूल्य सृजन के लिए दोनों का साथ आना भी जरूरी है। राधा-कृष्ण का संयोग जरूरी है। लेकिन, जमुना किनारे कान्हा बंसुरी बजावै, राधा पनिया भरन कैसे जाए! और, इस दुविधा के बीच श्रृंगार रस की उत्पत्ति हो जाती है। फासले से रस उत्पन्न होता है। पर, सृजन नहीं होता। सृजन तभी होगा, जब दोनों एक साथ होंगे। लेकिन दोनों को साथ लाता कौन है? साथ आ गए तो घर भी बना लेंगे। यहां तक कि महल भी खड़ा कर लेंगे। लेकिन दोनों साथ आएं तो कैसे? कौन-सी शक्ति है जो उन्हें साथ आने पर मजबूर कर देती है? यह है उत्कट प्रेम। प्यार की भावना। सृजन की प्राकृतिक प्रेरणा है, प्यार है तभी भाव पैदा होता है।
आज के दौर में संभावनामय आइडिया पूंजी और श्रम को साथ ला खड़ा करती है। शानदार विचार श्रम और पूंजी में मेल करा देता है। जो मुक्त है, वह पहले दौड़ा चला जाता है। जो दबा हुआ है, वह उसके पीछे-पीछे आता है। आइडिया के पीछे मुक्त-उन्मुक्त पूंजी पहली भागती है। वैज्ञानिक कोई नया पेटेंट खोज ले। फिर देखिए कि दुनिया से कहां-कहां तक की पूंजी उसके पीछे नहीं भागती। पेटेंट में सालों-साल का श्रम लगा होता है, इसलिए उसका मोल होता है, करोड़ो-अरबों में वह बिकता है। लेकिन बिकने के लिए बाजार का होना जरूरी है। मेला या हाट नहीं, विकसित बाजार। प्रतिस्पर्धा पर आधारित बाजार।
जिस तरह सच्चा लोकतंत्र एक-एक जन को जोड़ देता है, उनकी सुध रखता है, उसी तरह विकसित बाजार हर काम की चीज को जोड़ देता है। वहां इत्र के कद्रदान होते हैं, इत्र को सूंघने के बजाय कोई चखकर मीठा नहीं बताता। विकसित बाजार में आइडिया ही मूल्य सृजन का मूल स्रोत है। उसे देखकर पूंजी दौड़ी चली आती है। फिर श्रम कहां दूर रह सकता है? उसे भी तो गुजारा करना है। पूंजी राधा है तो श्रम है कृष्ण। या, राधा आइडिया हैं तो पूंजी हैं कृष्ण। राधा-कृष्ण के विविध रूप। लेकिन इन नाना रूपों को साकार करने की मूल शर्त है बाजार का अच्छा विकास। और, बाजार का संपूर्ण विकास लोकतंत्र के बिना संभव नहीं।
लोकतंत्र और बाजार के बीच अभिन्न रिश्ता है। दोनों का कोई विकल्प नहीं है। लोकतंत्र हमें खुलकर जीने की सहूलियत देता है तो बाजार मूल्य सृजन की। लोकतंत्र में लोक की भागीदारी जितनी कम होती है तो वह उतना ही कमजोर होता है। उसी तरह बाजार में लोगों की कम भागीदारी है तो वह ठीक से काम नहीं कर पाता। ज्यादा भागीदारी तो ज्यादा ताकत। बाजार में जितनी ज्यादा लोगों की भागीदारी होती है, वह उतना ही मजबूत होता है। अगर लोगों को उससे बाहर रखा जाता है तो बाजार मूल्य का सृजन नहीं कर पाते।
अभी के लिए बस इतना ही। बाकी फिर कभी। लेकिन आज का सबक यह है कि कोई उत्कृष्ट विचार ही पूंजी और श्रम में संयोग करा सकता है। यह संयोग नए मूल्य सृजन का आधार बने, इसके लिए बाजार का विकसित होना जरूरी है। मूल्य एक सापेक्ष चीज है, निरपेक्ष नहीं। सृजन से लेकर इसकी माप तक के लिए एक फ्रेमवर्क का होना जरूरी है। लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई और समय। इन चार विमाओं के संदर्भ में ही मूल्य का सृजन और आकलन किया जाता है।

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